कुछ दिनों पहले मैं अपने एक मित्र के साथ गांव की ओर घूमने गया। हम वहां की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेने निकले थे—पहाड़, झरने और हरियाली ने हमें आकर्षित किया। लेकिन इस यात्रा में एक ऐसा अनुभव हुआ जिसने हमारे मन को झकझोर कर रख दिया। हमने सोचा क्यों न वहां की एक Z.P. (जिला परिषद) स्कूल का दौरा किया जाए और देखा जाए कि बच्चों को किस तरह की शिक्षा और सुविधाएं मिल रही हैं। जो कुछ हमने वहां देखा और जाना, वो सिर्फ चौंकाने वाला नहीं था बल्कि दिल को भी अंदर तक दुखी कर गया।
Z.P. स्कूल का दौरा: उम्मीद से हकीकत तक
हम गांव की Z.P. स्कूल पहुंचे और वहां के प्रधानाध्यापक से मुलाकात की। उनका स्वभाव काफी विनम्र था। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझे स्कूल देखनी है, तो वे तुरंत तैयार हो गए और हमें स्कूल दिखाने के लिए खुद साथ चल पड़े।
स्कूल की हालत: इमारत नहीं, संघर्ष का अड्डा
स्कूल में सिर्फ तीन कक्षाएं थीं, जबकि नामांकन पहली से सातवीं तक था। बच्चों की संख्या काफी थी, लेकिन संसाधनों की भारी कमी थी। हम जब पांचवी कक्षा की ओर गए, तो वहां लगभग 70 बच्चे मौजूद थे। एक छोटी सी कक्षा में इतनी अधिक संख्या में बच्चों को बैठाना किसी चुनौती से कम नहीं था।
- एक बेंच पर तीन बच्चे: एक बेंच पर तीन-तीन बच्चे बैठने को मजबूर थे। इससे ना सिर्फ बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही थी बल्कि उनकी सेहत पर भी असर पड़ रहा था।
- खस्ताहाल दीवारें और गर्मी से झुलसता कमरा:
दीवारों की पुताई उखड़ी हुई थी। कमरे में साफ-सफाई का नामोनिशान नहीं था। टीन की छत के कारण कक्षा अंदर से तंदूर जैसी गर्म हो रही थी। कहीं कोई पंखा नहीं था।
शिक्षा नहीं, केवल खानापूर्ति: शिक्षकों की बेबसी और राजनीति का दखल
शिक्षक पढ़ा रहे हैं शिफ्ट में: एक असामान्य दिनचर्या
गांव की Z.P. स्कूल में एक शिक्षिका हैं, जो गांव के वर्तमान सरपंच की रिश्तेदार हैं। उनका व्यवहार, समय की पाबंदी और जिम्मेदारी का एहसास बाकी सभी शिक्षकों से बिल्कुल अलग है।जहां बाकी शिक्षक स्कूल में सिर्फ तीन ही कक्षाएं होने के बावजूद समझदारी से “अलट-पलट” (शिफ्ट) करके पढ़ाते हैं—एक दिन अगर कोई शिक्षक कक्षा के अंदर पढ़ा रहा है, तो अगले दिन वही शिक्षक पेड़ के नीचे बच्चों को पढ़ा देता है—वहीं यह मैडम कभी भी ऐसा कोई adjustment नहीं करतीं। वे हमेशा तीसरी कक्षा के कमरे में ही पढ़ाती हैं, और कभी भी पेड़ के नीचे या अन्य कक्षा में बड़े बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं होतीं।
यही नहीं, वह अक्सर रोज़ाना 1.5 घंटे की देरी से स्कूल आती हैं, और फिर भी कोई कुछ नहीं कह सकता क्योंकि उनके पीछे सरपंच का खुला समर्थन है। स्कूल के प्रिंसिपल ने कई बार कोशिश की कि वे अन्य कक्षाओं को भी पढ़ाएं, खासकर 6वीं या 7वीं जैसी बड़ी कक्षाएं जिनका पाठ्यक्रम ज्यादा गंभीर और चुनौतीपूर्ण होता है, लेकिन वो हमेशा इनकार कर देती हैं। D.Ed. जैसी शैक्षणिक योग्यता होने के बावजूद, वह सिर्फ तीसरी कक्षा की पढ़ाई पर ही ज़ोर देती हैं क्योंकि:
- छोटी कक्षा है
- सिलेबस आसान है
- मेहनत कम करनी पड़ती है
यहां तक कि उन्होंने अपने लिए विशेष रूप से कक्षा में पंखा लगवाने की मांग की, और बाकी कमरों में पंखे न होते हुए भी उन्हें लगा दिया गया—सिर्फ उनके दबदबे के कारण। जब प्रिंसिपल ने उनसे किसी प्रकार का सहयोग माँगने की कोशिश की, तो उन्होंने तुरंत सरपंच से शिकायत कर दी। सरपंच ने भी बिना कोई विचार किए प्रिंसिपल को डांट पिलाई। यही कारण है कि प्रिंसिपल, जो कि इस गांव के नहीं हैं, कुछ बोल नहीं पाते। गांव में कोई उनकी बात नहीं सुनता, क्योंकि गांव के लोग सिर्फ सरपंच की ही सुनते हैं।
इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि:
- शिक्षा का स्तर सिफारिश और रुतबे के नीचे दबा पड़ा है
- शिक्षक अब ज्ञान का नहीं, सत्ता का सहारा लेकर पढ़ाते हैं
- बच्चों का भविष्य उन लोगों के हाथों में है जिन्हें खुद जिम्मेदारी का एहसास नहीं
सरकारी फंड और भ्रष्टाचार: विकास के नाम पर डकैती
MLA फंड से मिली राशि और सरपंच की लूट
प्रधानाध्यापक ने बताया कि लगभग 1-2 वर्ष पहले उन्होंने और बाकी शिक्षकों ने मिलकर अपने स्थानीय विधायक (MLA) से स्कूल के लिए ग्रामीण आधारभूत ढांचे के अंतर्गत फंड मांगा था। विधायक ने उनकी बात मानते हुए राशि मंजूर करवाई, जो ग्राम पंचायत को मिली। लेकिन इस योजना को लागू करने की जिम्मेदारी गांव के सरपंच पर थी। सरपंच ने पांच कक्षाओं के निर्माण के लिए आए पैसे में से सिर्फ तीन कमरों के लिए बजट दिखाकर बाकी पैसा हड़प लिया। इस तरह भ्रष्टाचार की कीमत मासूम बच्चों को चुकानी पड़ रही है।
एक और घोटाला: पुल निर्माण में घटिया सामग्री का उपयोग
इस गांव के सरपंच ने न केवल स्कूल विकास फंड में गड़बड़ी की, बल्कि गांव के पुल निर्माण में भी वही कहानी दोहराई। गांव में एक पुल था, जिसे नाले के ऊपर से गुजरने वाला पानी अक्सर डुबो देता था। इसके समाधान के लिए फंड मंजूर करवाया गया था—पुल को ऊंचा करने और मजबूत बनाने के लिए।लेकिन जैसे ही पैसे आए, सरपंच ने घटिया सामग्री का इस्तेमाल कर बहुत ही कम बजट में पुल बनवा दिया और बाकी पैसे अपनी जेब में डाल लिए। पुल को ऊंचा करने का जो कार्य था, वह भी सिर्फ कागजों पर हुआ। हकीकत में उस काम को कभी अंजाम ही नहीं दिया गया। इसका परिणाम ये है कि आज भी, एक अच्छी बारिश के बाद नाले का पानी पुल के ऊपर बहता है।
शिक्षकों को रोजाना का संघर्ष:
- जो शिक्षक बाहर गांव से आते हैं, उन्हें गांव में आने के लिए इसी पुल से गुजरना पड़ता है।
- अगर रात भर बारिश हो जाए, तो सुबह पुल के ऊपर पानी बहता रहता है, जिससे पार करना मुश्किल हो जाता है।
- कई बार शिक्षक मजबूरन पानी में चलकर आते हैं, जिससे उनके कपड़े, किताबें और बच्चों को पढ़ाने का सारा सामान खराब हो जाता है।
- कुछ शिक्षकों को तो उल्टा रास्ता लेकर गांव में प्रवेश करना पड़ता है, जिससे समय की बर्बादी भी होती है।
सवाल उठते हैं, लेकिन जवाब कौन देगा?
- क्या यह है “सबको शिक्षा” का सपना?
- क्या हमारे बच्चों को इस तरह की शिक्षा मिलनी चाहिए?
- कब तक ग्रामीण इलाकों के बच्चे सुविधाओं से वंचित रहेंगे?
समस्याओं का विश्लेषण: असली जड़ क्या है?
| समस्या | जड़ में कारण |
|---|---|
| कक्षाओं की कमी | फंड का दुरुपयोग, भ्रष्ट पंचायत |
| अधूरी सुविधाएं | निगरानी की कमी, जवाबदेही का अभाव |
| अनियमित शिक्षण | सत्ता के दखल से कमजोर प्रशासन |
| बच्चों पर असर | भीड़भाड़, ध्यान की कमी, गुणवत्ता में गिरावट |
समाधान क्या हो सकते हैं?
1. जन-जागरूकता और भागीदारी
गांव के लोगों को अब जागरूक होने की जरूरत है। उन्हें सिर्फ चुनाव के समय नहीं, बल्कि हर दिन अपने प्रतिनिधियों से जवाब मांगना चाहिए।
2. RTI और शिकायत प्रणाली का उपयोग
स्कूल की विकास योजनाओं की जानकारी RTI (सूचना का अधिकार) के तहत मांगी जा सकती है। भ्रष्टाचार का पता चलने पर जिला शिक्षा अधिकारी से शिकायत दर्ज करवाई जानी चाहिए।
3. सोशल मीडिया के जरिए आवाज उठाएं
आज हर व्यक्ति के पास मोबाइल है। सोशल मीडिया जैसे Facebook, Twitter, Instagram पर स्कूल की हकीकत उजागर करना चाहिए ताकि प्रशासन तक बात पहुंचे।
4. निष्पक्ष और पारदर्शी निगरानी प्रणाली
हर ग्राम पंचायत के कार्यों की एक सार्वजनिक वेबसाइट या डिस्प्ले बोर्ड होना चाहिए, जहां फंड की जानकारी और खर्च का हिसाब दिया जाए।
एक अपील: बदलाव की शुरुआत आपसे हो सकती है
आप, हम और हम सब मिलकर इस व्यवस्था को बदल सकते हैं। अगर हम चुप रहे, तो हर साल लाखों बच्चे ऐसे ही धूल में खेलते रहेंगे—बिना शिक्षा, बिना सुविधा, बिना भविष्य के।
निष्कर्ष: एक आंख खोलने वाली यात्रा
यह यात्रा हमारे लिए एक सुंदर छुट्टी नहीं रही, बल्कि एक जिम्मेदारी बन गई है। जब हम शहरों में AC कमरों में बैठकर शिक्षा की बात करते हैं, तब हमें उन गांवों को भी देखना चाहिए, जहां एक पंखे के लिए भी बच्चों को संघर्ष करना पड़ता है।



